सोमवार, 13 अक्तूबर 2014

समाज को कहाँ ले जाएगा यह नशा

शराब का व्यापार तेजी से फलता फूलता जा रहा है। इस कारण समाज में जहाँ अनेक विसंगतियां पैदा हो रही हैं वहीं उसके सेवन के शिकार लोगों की मौतों का आंकड़ा भी बढ़ता जा रहा है । शराब के निर्धारित ठेकों के इतर अवैध रूप से भी खूब शराब बिक रही है और सरकारी मशीनरी उस पर काबू पाने में विफल साबित हो रही है। कभी-कभार कुछ शराब पकड़ी भी जाती है लेकिन असली अपराधी पकड़ में नहीं आते। प्रधानमंत्री मोदी जिस गुजरात राज्य से आते हैं वह गांधीजी का प्रदेश है और जिसे दुनिया एक आदर्श मानती है । गुजरात में एक लंबे अरसे से शराबबंदी है और वहाँ कभी यह नहीं कहा गया कि विकास के लिए शराब का व्यापार जरूरी है और ना ही वहाँ कभी शराबबंदी समाप्त करने की आवाज़ उठी। ऐसे में क्या इस बात पर विचार नहीं किया जाना चाहिए कि सभी राज्यों में इस सामाजिक बुराई से जुड़े व्यापार को अलविदा कह दिया जाए। इधर हाल ही केरल जैसे एक छोटे राज्य ने भी शराबबंदी लागू करने का क्रान्तिकारी फैसला लिया है जो निश्चय ही अनुकरणीय है। राजस्थान में जनता राज में शराबबंदी के बारे में प्रयोग भी हो चुका है।उस समय सरकार में कांग्रेस मूल के मास्टर आदित्येन्द्र वित्तमंत्री थे और उनका गांधीजी के सिद्धांतों में अटूट विश्वास था । मुख्यमंत्री भैरोंसिंह शेखावत के रहते यह उनका ही दबाव और साहस था ।यदि संकल्प दृढ़ हो तो फिर कदम उठाने में कोई हिचक नहीं होती। दुर्भाग्यवश सरकार अपने अंतरद्वन्द्वों के कारण ढाई वर्षों में ही धराशायी हो गयी,लेकिन उस कदम को हमेशा सराहा जाएगा। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के अनुयाई गोकुल भाई भट्ट और सिद्धराज ढ़ड्ढा एवं उनके साथियों की अगुवाई में प्रदेश में आंदोलन हुए, शराब की दुकानें बंद करने के लिए धरने दिये गए जिसमें निवृतमान मुख्य मंत्री अशोक गहलोत भी शामिल रहे हैं । यह प्रदेश इसका साक्षी है। अब तक प्रदेश में शराबबंदी लागू नहीं हो पाने के लिए काँग्रेस सरकार भी कम दोषी नहीं है,जिसके पास ज़्यादातर समय बहुमत रहा है। वर्तमान में केन्द्र एवं राज्य दोनों जगह बहुमत वाली भाजपा सरकारें हैं । इसमें इच्छा शक्ति मिल जाए तो समाज की इस बड़ी और जानलेवा बीमारी और अनैतिक प्रवृति को जड़ से मिटाया जा सकता है । हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि शराब हमारी सशक्त और ऊर्जावान युवापीढ़ी को सबसे ज्यादा तबाह और बर्बाद कर रही है और इस तरह देश को कमजोर कर रही है। एक नज़र हम राजस्थान में शराब बिक्री के आंकड़ों पर डालेंगे तो पता चल जाएगा कि किस तेजी से शराब का धंधा बढ़ रहा है। आंकड़े बताते हैं कि वित्त वर्ष 2010-11 में राज्य सरकार को शराब की बिक्री से 2651.41 करोड़ रुपये प्राप्त हुए जो इसके अगले साल बढ़कर 3287 तक पहुँच गए। वित्त वर्ष 2012-13 में इस मद में आमदनी बढ़कर लगभग 4000 करोड़ और 2013-14 तक 4400 करोड़ तक पहुँच गयी। यह तो सरकारी आंकड़ा है और इसमें पड़ौसी राज्य से अवैध रूप से लाकर बैची जाने वाली शराब का आंकड़ा शामिल कर लिया जाए तो आंकड़ा कहाँ पहुंचेगा,इसका अनुमान लगाया जा सकता है। राजधानी जयपुर के बाद जोधपुर प्रदेश का दूसरा सबसे बड़ा शहर है। जोधपुर भी शराब की खपत में तेजी से अग्रसर है। आंकड़े बताते हैं कि जोधपुर में वर्ष 2011 में 42 लाख 70 हजार लीटर अँग्रेजी शराब, 1 करोड़ 5 लाख 57 हजार लीटर बीयर तथा 71लाख 42 हजार लीटर से अधिक देशी शराब बिकी जबकि वर्ष 2013-14 में 61 लाख 77 हजार लीटर से अधिक अँग्रेजी शराब, 1 करोड़ 26 लाख 32 हजार लीटर बीयर और 77 लाख 13 हजार लीटर देशी शराब की बिक्री हुई। इससे सिद्ध है कि सरकार की रुचि शराब बेचने में है और इससे लोगों को निरुत्साहित करने में नहीं है। इस तरह से मद्यनिषेध कार्यक्रम की बात एक प्रकार से बेमानी है,जो सरकार चलाती है और इस पर काफी धन खर्च किया जाता है। इस कार्यक्रम को चलाने का कोई अर्थ नहीं रह जाता है। यह किसी से छुपा हुआ नहीं है कि शराब पीकर वाहन चलाने की घटनाओं से हर साल सैंकड़ों लोगों की जानें चली जाती हैं। सड़क दुर्घटनाओं में होने वाली मौतों में शराब पीने वालों का योगदान बढ़ता ही जा रहा है। शराब के कारण होने वाली गृह क्लेष की घटनाओं से परिवार टूटते जा रहे हैं और शराब पीकर पत्नी, माँ और बच्चों को मौत के घाट उतारने या स्वयं आत्महत्या जैसे कदम उठाने की घटनाएँ आम हैं। शराब पीकर उत्पात मचाने और लड़कियों के साथ छेड़छाड़,बलात्कार आदि गंभीर घटनाओं से पूरा देश भलीभाँति परिचित है। सभी जानते हैं कि शराब की बढ़ती दुष्प्रवृति के कारण अदालतों में मुकदमों की यकायक बाढ़ आ गई है जिससे घर-परिवार बर्बाद हो रहे हैं। सामाजिक सदभावना नष्ट होती जा रही है। इस दुष्प्रवृति को समय रहते नहीं रोका गया तो और अधिक गंभीर परिणाम भुगतने के लिए देश को तैयार रहना होगा। सरकारों के पास आमदनी के और भी बहुत से जरिये हैं। राजस्थान के पास खनिजों के रूप में अपार सम्पदा है । प्रतिदिन करोड़ों रुपयों की आय खनिज तेल भंडारों के दोहन से हो रही है । अगर जल्दी ही रिफाइनरी लगा दी जाए तो इस तेल के वाणिज्यिक विक्रय से असीमित आमदनी होने लगेगी। सरकार को इस प्रकार अपना ध्यान केन्द्रित करना चाहिए जिससे आमदनी तेजी से बढ़े और वह नैतिक भी हो। शराब की आमदनी से विकास करने की अवधारणा समझ से बाहर है। गांधीजी के देश में शराब के बढ़ते प्रचलन की बात भारतीय सभ्यता और संस्कृति से भी मेल नहीं खाती। ऐसे में देश और प्रदेश की सरकारों को सोचना होगा कि हमें कमजोर, नशे करनेवाली एवं बुद्धिहीन-विक्षिप्त जनशक्ति चाहिए या ऐसी हो जो स्वस्थ, शिक्षित, ज्ञान-विज्ञान वाली मजबूत जनशक्ति के रूप में देश का अंतरराष्ट्रीय स्तर पर गौरव बढ़ाए । -फारूक आफरीदी

गुरुवार, 11 सितंबर 2014

बालश्रम के अभिशाप से छुटकारा पाना होगा



        आए दिन बाल श्रमिकों के पकड़े जाने के समाचार सुर्खियों में रहते हैं  लेकिन  इस समस्या का स्थायी समाधान अभी दूर की कौड़ी है । आजादी के 67 सालों बाद भी हम कोई कारगर नीति नहीं बना पाये, जो एक चिंताजनक सवाल है। इस प्रथा को कई देशों और अंतर्राष्ट्रीय संगठनों ने बच्चों के शोषण की संज्ञा दी है। अतीत में बाल श्रम का कई प्रकार से उपयोग किया जाता था, लेकिन सार्वभौमिक स्कूली शिक्षा के साथ औद्योगीकरण, काम करने की स्थिति में परिवर्तन तथा कामगारों के श्रम अधिकार और बच्चों के अधिकार की अवधारणाओं के चलते इसमें  जनविवाद प्रवेश कर गया। बाल श्रम अभी भी कुछ देशों में  आम बात है और भारत में यह समस्या काफी गहरी हैसरकार भी यह स्वीकार करती है कि बाल श्रम की समस्या देश के समक्ष एक गंभीर चुनौती है।  सरकार इस समस्या को सुलझाने के लिए विभिन्न सकारात्मक सक्रिय क़दम उठाने के साथ  मानती है कि यह समस्या मूलतः एक सामाजिक-आर्थिक समस्या है जो विकट रूप से ग़रीबी और निरक्षरता से जुड़ी है और इसे सुलझाने के लिए समाज के सभी वर्गों द्वारा ठोस प्रयास करने की ज़रूरत है।
              जनगणना-2001 के आँकड़ों के अनुसार 25.2 करोड़ कुल बच्चों की आबादी की तुलना में 5-14 वर्ष के आयु समूह में 1.26 करोड़ बच्चे काम कर रहे हैं। इनमें से लगभग 12 लाख बच्चे ऐसे ख़तरनाक कार्यों में काम कर रहे हैं, जो बाल श्रम (निषेध एवं विनियमन) अधिनियम के अंतर्गत आते हैं । हालाँकि, 2004-05 में राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार काम करने वाले बच्चों की संख्या 90.75 लाख होने का अनुमान है। सरकार ने बहुत पहले 1979 में बाल श्रम की समस्या के अध्ययन और उससे निपटने के लिए उपाय सुझाने हेतु गुरुपादस्वामी समिति का गठन किया था। समिति ने अपनी सिफारिशें करते हुए पाया कि जब तक ग़रीबी जारी रहेगी, तब तक बाल श्रम को पूरी तरह मिटाना मुश्किल हो सकता है और इसलिए किसी क़ानूनी उपाय के माध्यम से उसे समूल मिटाने का प्रयास व्यावहारिक प्रस्ताव नहीं होगा। समिति ने महसूस किया कि इन परिस्थितियों में ख़तरनाक क्षेत्रों में बाल श्रम पर प्रतिबंध लगाना और अन्य क्षेत्रों में कार्यकारी परिस्थितियों को विनियमित करना और उनमें सुधार लाना ही एकमात्र विकल्प है। उसने सिफ़ारिश की कि कामकाजी बच्चों की समस्याओं से निपटने के लिए विविध-नीति दृष्टिकोण आवश्यक है।  
            इस समिति की सिफारिशों के आधार पर 1986 में बाल श्रम (निषेध एवं विनियमन) अधिनियम लागू किया गया।  उपरोक्त दृष्टिकोण के अनुरूप, 1987 में बाल श्रम पर एक राष्ट्रीय नीति तैयार की गई।  नीति में  बाल श्रमिकों के लाभार्थ सामान्य विकास कार्यक्रम पर ध्यान केंद्रित करने पर ज़ोर दिया गया। नीति के  अनुसरण में 1988  के दौरान देश के उच्च बाल श्रम स्थानिकता वाले  9 जिलों में राष्ट्रीय बाल श्रम परियोजना प्रारम्भ की गई  इस योजना में काम से छुड़ाए गए बाल श्रमिकों के लिए विशेष पाठशालाएँ चलाने की परिकल्पना की गई।
              बच्चों से वेश्यावृत्ति या उत्खनन, कृषि, माता पिता के व्यापार में मदद, अपना स्वयं का लघु व्यवसाय (जैसे खाने पीने की चीजें बेचना) या अन्य छोटे मोटे काम हो सकते हैं, लिए जाते हैं ।  कुछ बच्चे पर्यटकों के गाइड के रूप में काम करते हैं, कभी-कभी उन्हें दुकान और रेस्तरां ( जहाँ वे वेटर के रूप में भी काम करते हैं) के काम में लगा दिया जाता है। बच्चों से बलपूर्वक परिश्रम-साध्य और दोहराव वाला काम लिया जाता है जैसे बक्से बनाना, जूते पॉलिश,स्टोर के उत्पादों को भंडारण करना और साफ-सफाई करना आदि। कारखानों और मिठाई की दूकान के अलावा अधिकांश बच्चे अनौपचारिक क्षेत्र में काम करते हैं, जैसे सड़कों पर कई चीज़ें बेचना,कृषि में काम करना या [बच्चों का घरों में छिप कर घरेलू कार्य काम करना] - ये कार्य सरकारी श्रम निरीक्षकों और मीडिया की जांच की पहुँच से दूर रहते हैं । दुखद स्थिति यह है कि ये सभी काम सभी प्रकार के मौसम में तथा न्यूनतम वेतन पर किए जाते हैं ।
       यूनिसेफ के अनुसार, दुनिया में लगभग 2.5 करोड बच्चे, जिनकी आयु 2-17 साल के बीच है वे बाल-श्रम में लिप्त हैं, जबकि इसमें घरेलू श्रम शामिल नहीं है। सबसे व्यापक अस्वीकार कर देने वाले बाल-श्रम के रूप हैं बच्चों का सैन्य उपयोग और बाल वेश्यावृत्ति है। कम विवादास्पद और कुछ प्रतिबंधों के साथ कानूनी रूप से मान्य कुछ काम है जैसे बाल अभिनेता और बाल गायक, साथ ही साथ स्कूलवर्ष( सीजनल कार्य) के बाद का कार्य, और अपना कोई व्यापार जो स्कूल के घंटों के बाद होने काम आदि शामिल है। बाल अधिकार के तहत यदि निश्चित उम्र से कम में कोई बच्चा घर के काम या स्कूल के काम को छोड़कर कोई अन्य काम करता है तो वह अनुचित या शोषण माना जाता है।  किसी भी नियोक्ता को एक निश्चित आयु से कम के बच्चे को किराए पर रखने की अनुमति नहीं है। न्यूनतम आयु देश पर निर्भर करता है।सबसे ताकतवर अंतर राष्ट्रीय कानूनी भाषा है जो अवैध बाल श्रम पर रोक लगाती है, हालाँकि यह बाल श्रम को अवैध नहीं मानती है।
       सरकार द्वारा इन बच्चों के पुनर्वास और उनके परिवारों की आर्थिक स्थिति में सुधार लाने पर  ज़ोर दिया जा रहा है लेकिन उसकी भी अपनी सीमाएं हैंकानून या योजना बना देने मात्र से ऐसी गंभीर समस्याओं का समाधान संभव नहीं है। इसमें सरकार से अधिक सामाजिक उत्तरदायित्व महत्वपूर्ण है । कुल मिलकर यह कहा जा सकता है कि समाज की सोच बदलने की जरूरत है। वह ऐसे बच्चों की जिंदगी बेहतर बनाने का संकल्प ले और ऐसे परिवारों की  आजीविका की बाधाओं को उदारतापूर्वक दूर कर उन्हें संबल प्रदान करे । समाज न तो स्वयं बच्चों का शोषण करे और न अपने सामने किसी को करने दे। सरकार की भी ज़िम्मेदारी बनती है कि ऐसे बच्चों के विकास और उत्थान में लगी संस्थाओं को उदारतापूर्वक सहयोग करे और पर्याप्त अनुदान दे ताकि वहाँ रहकर अपना जीवन सँवारने वाले बच्चे यह महसूस करें कि वे भी समाज के अभिन्न अंग हैं। इसके साथ ही बाल मजदूरी को सख्ती से रोकने के लिए घिसे पिटे पुराने कानूनों को खत्म कर वर्तमान समय के अनुकूल कारगर बनाया जाए। -फारूक आफरीदी

बुधवार, 10 सितंबर 2014

यह कैसा नशा है

यह कैसा नशा है कि आप लोगों की जिंदगी से खिलवाड़ करते है। धूम्रपान करते हुए यह भी नहीं सोचते कि आपकी यह हरकत औरों के लिए जानलेवा साबित हो सकती है । धन्य है भारत ने सार्वजनिक स्थानों पर धूम्रपान कि सजा 20 हजार रुपये निर्धारित की है । अब तक यह जुर्माना राशि मात्र 200 रुपये थी।  अब सवाल उठता है कि इसकी पालना कितनी सख्ती से होती है ? कहीं ऐसा तो नहीं कि यह भी भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाएगी और इसकी पालना कराने वाले योजना के नाम पर अन्य योजनाओं की भांति अपनी जेबें  गरम करेंगे।

दिल्ली सरकार के पूर्व प्रधान सचिव रमेशचन्द्र की अध्यक्षता वाली विशेष समिति ने तंबाकू सेवन की न्यूनतम आयु 18 वर्ष से बढ़कर 25 करते हुए तंबाकू उत्पादों पर सचित्र चेतावनी का आकार 80 प्रतिशत बढ़ाने की सिफ़ारिश की है । पालन नहीं करने वाले निर्माताओं पर जुर्माना 5000 से बढ़ाकर 50,000 रुपये करने को कहा गया है। अब फैसला लागू कराने का दायित्व जागरूक जनता का है।आप अपने दिल पर हाथ रख कर सोचिए कि कितने जागरूक हैं । --फारूक आफरीदी